किस ने दिया शनि को अशुभ द्रष्टि का श्राप

शनि की क्रूर द्रष्टि का रहस्य

ब्रह्म पुराण के अनुसार शनि देव बाल्य अवस्था से ही भगवान विष्णु के परम भक्त थे | हर समय उन के ही ध्यान में मग्न रहते थे | विवाह योग्य आयु होने पर इनका विवाह चित्ररथ की कन्या से संपन्न हुआ | इनकी पत्नी भी साध्वी एवम तेजस्विनी थी | एक  बार वह पुत्र प्राप्ति की कामना से शनिदेव के निकट आई | उस समय शनि ध्यान मग्न थे, अतः उन्हों ने अपनी पत्नी की ओर दृष्टिपात तक नहीं किया |लंबी प्रतीक्षा के बाद भी जब शनि का ध्यान भंग नहीं हुआ, तो वह ऋतुकाल निष्फल हो जाने के कारण से क्रोधित हो गयी और शनि को शाप दे दिया कि – अब से तुम जिस पर भी दृष्टिपात करोगे वह नष्ट हो जाएगा | तभी से शनि कि दृष्टि को क्रूर व अशुभ समझा जाता है | शनि भी सदैव अपनी दृष्टि नीचे ही रखते हैं, ताकि उनके द्वारा किसी का अनिष्ट न हो | फलित ज्योतिष में भी शनि कि दृष्टि को अमंगलकारी कहा गया है |

ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी शनि कि क्रूर दृष्टि का वर्णन है | गौरी नंदन गणेश के जन्मोत्सव पर शनि बालक के दर्शन कि अभिलाषा से गए | मस्तक झुका कर बंद नेत्रों से माता पार्वती के चरणों में प्रणाम किया, शिशु गणेश माता कि गोद में ही थे | माँ पार्वती ने शनि को आशीष देते हुए प्रश्न किया ,” हे शनि देव ! आप गणेश को देख नहीं रहे हो इसका क्या कारण है |” शनि ने उत्तर दिया –“ माता ! मेरी सहधर्मिणी का शाप है कि मैं जिसे भी देखूंगा उसका अनिष्ट होगा ,इसलिए मैं अपनी दृष्टि नीचे ही रखता हूँ | “ पार्वती ने सत्य को जान कर भी दैववश शनि को बालक को देखने का आदेश दिया | धर्म को साक्षी मान कर शनि ने वाम नेत्र के कोने से बालक गणेश पर दृष्टिपात किया | शनि दृष्टि पड़ते ही गणेश का मस्तक धड से अलग हो कर गोलोक में चला गया | बाद में श्री हरि ने एक गज शिशु का मस्तक गणेश के धड से जोड़ा और उस में प्राणों का संचार किया |तभी से गणेश गजानन नाम से  प्रसिद्ध हुए |

 

 शनिदेव को ग्रहत्व कि प्राप्ति

स्कन्द पुराण में काशी खण्ड में वृतांत है कि छाया सुत शनिदेव ने अपने पिता भगवान सूर्य से प्रार्थना की कि मै ऐसा पद प्राप्त करना चाहता हूँ जिसे आज तक किसी ने प्राप्त न किया हो, आपके मंडल से मेरा मंडल सात गुना बडा हो और मेरे वेग का कोई सामना नही कर पाये चाहे वह देव,असुर,दानव, ही क्यों न हो | शनिदेव की यह बात सुन कर भगवान सूर्य प्रसन्न हुए और उत्तर दिया कि इसके लिये उसे काशी जा कर भगवान शंकर कि आराधना करनी चाहिए | शनि देव ने पिता की आज्ञानुसार वैसा ही किया और शिव ने प्रसन्न हो कर शनि को ग्रहत्व प्रदान कर नव ग्रह मंडल में स्थान दिया |

 

ज्योतिष शास्त्र में शनि

ज्योतिष शास्त्र में शनि  को पाप व अशुभ  ग्रह माना गया है | ग्रह मंडलमें शनि को सेवक का पद प्राप्त है| यह मकर  और कुम्भ  राशियों का स्वामी है | यह तुला राशि में उच्च का तथा मेष राशि  में नीच का माना जाता है | कुम्भ इसकी मूल त्रिकोण राशि भी है | शनि  अपने स्थान से तीसरे, सातवें,दसवें  स्थानको पूर्ण दृष्टि से देखता है और इसकी दृष्टि को अशुभकारक कहा गया है | जनमकुंडली मेंशनि  षष्ट, अष्टम भाव का कारक होता है | शनि की सूर्य -चन्द्र –मंगल सेशत्रुता, शुक्र – बुध से मैत्री और गुरु से समता है | यह स्व, मूलत्रिकोण व उच्च, मित्र राशि – नवांश  में, शनिवार  में, दक्षिणायन में, दिन के अंत में, कृष्ण पक्ष में, वक्री होने पर, वर्गोत्तम नवमांश में बलवान व शुभकारक होता है |

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